होलिका दहन (Holika Dahan) की रहस्यमयी कहानी! प्रह्लाद और होलिका की सच्ची कथा जो आपको चौंका देगी!
भारत में होलिका दहन (Holika Dahan) का पर्व होली से एक दिन पहले मनाया जाता है। इसे चोटी होली या होलिका दहन के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है और इसे प्रह्लाद और होलिका की पौराणिक कथा से जोड़ा जाता है। इस कहानी में भक्ति, अधर्म, अहंकार और न्याय का संगम देखने को मिलता है। इस लेख में हम विस्तार से होलिका दहन की कथा को समझेंगे और इसके पीछे छिपे धार्मिक और सामाजिक संदेश को जानेंगे।
प्राचीन काल में एक अत्याचारी राजा हिरण्यकशिपु था। उसने भगवान विष्णु से घोर तपस्या कर एक अमरत्व का वरदान प्राप्त किया। वरदान के अनुसार, उसे ना कोई मानव मार सकता था, ना पशु, ना दिन में, ना रात में, ना घर में, ना बाहर, ना हथियार से, ना हाथ से। इस वरदान ने उसे अहंकारी और निर्दयी बना दिया। उसने पूरे राज्य में भगवान विष्णु की पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया और खुद को ही भगवान मानने लगा।
हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद जन्म से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। वह हर समय “नारायण-नारायण” का जाप करता था। उसे धर्म और सत्य से अत्यधिक प्रेम था। हिरण्यकशिपु अपने पुत्र की इस भक्ति से बेहद क्रोधित था। उसने प्रह्लाद को विष्णु भक्ति छोड़ने के लिए समझाया, लेकिन प्रह्लाद ने अपने पिता की आज्ञा नहीं मानी।
हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को भगवान विष्णु की भक्ति से रोकने के लिए कई यातनाएँ दीं। उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे प्रह्लाद को तलवारों से काट दें, ऊँचाई से गिरा दें, ज़हरीला विष पिला दें, और जंगल में छोड़ दें। लेकिन हर बार भगवान विष्णु ने प्रह्लाद की रक्षा की। यह देखकर हिरण्यकशिपु और भी क्रोधित हो गया और उसने अपनी बहन होलिका की मदद लेने का निश्चय किया।
हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को एक अद्भुत वरदान प्राप्त था। वह आग में नहीं जल सकती थी। उसने सोचा कि यदि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठेगी, तो प्रह्लाद जल जाएगा और वह सुरक्षित रहेगी।
हिरण्यकशिपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को मारने के लिए अग्नि में बैठे।
होलिका ने प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर अग्नि में प्रवेश किया। लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से होलिका का वरदान निष्फल हो गया। वह जलकर भस्म हो गई, जबकि प्रह्लाद को अग्नि का कोई नुकसान नहीं हुआ। इस घटना ने सिद्ध कर दिया कि सत्य की हमेशा विजय होती है और अधर्म अंततः नष्ट हो जाता है।
जब हिरण्यकशिपु ने देखा कि प्रह्लाद को मारने की उसकी सभी योजनाएँ असफल हो गईं, तो उसने खुद उसे मारने का निर्णय लिया। उसने प्रह्लाद से पूछा, “क्या तुम्हारा भगवान इस खंभे में भी है?”
प्रह्लाद ने कहा, “हाँ, भगवान हर जगह हैं।”
क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने खंभे को तोड़ा, और उसी क्षण भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार (आधा सिंह, आधा मानव) लेकर प्रकट हुए। उन्होंने संध्या समय (ना दिन, ना रात), द्वार की चौखट (ना घर, ना बाहर), अपने नाखूनों (ना हथियार, ना हाथ) से हिरण्यकशिपु का वध कर दिया।
इस प्रकार सत्य की जीत हुई और प्रह्लाद को भगवान विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
हर साल फाल्गुन पूर्णिमा की रात, भारत में होलिका दहन किया जाता है। यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है।
भारत में होलिका दहन बड़ी श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग लकड़ियाँ और उपले (गोबर के कंडे) जलाकर होलिका की प्रतीकात्मक मूर्ति बनाते हैं।
होलिका दहन केवल एक पौराणिक कथा नहीं, बल्कि एक महत्वपूर्ण जीवन संदेश है। यह हमें सिखाता है कि अत्याचार और अहंकार का अंत निश्चित है, जबकि सच्चाई और भक्ति की हमेशा जीत होती है।
होलिका दहन होली से एक दिन पहले मनाया जाने वाला पर्व है, जिसमें असत्य पर सत्य की विजय का उत्सव मनाया जाता है। इस दिन प्रह्लाद और होलिका की पौराणिक कथा को याद किया जाता है।
होलिका दहन की परंपरा प्रह्लाद और होलिका की कथा से जुड़ी है। जब होलिका ने प्रह्लाद को जलाने की कोशिश की, तो वह खुद जल गई और प्रह्लाद सुरक्षित बच गए। इसी घटना की याद में यह पर्व मनाया जाता है।
हिरण्यकशिपु एक असुर राजा था, जिसने भगवान विष्णु से बदला लेने के लिए घोर तपस्या की और अमर होने का वरदान प्राप्त किया। लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु भक्त था, जिससे वह नाराज था।
प्रह्लाद हिरण्यकशिपु का पुत्र था, जो बचपन से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। उसने अपने पिता के अधर्म और अहंकार का विरोध किया, जिससे उसे कई यातनाएँ सहनी पड़ीं।
होलिका को वरदान मिला था कि वह आग में नहीं जलेगी। लेकिन जब उसने प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठने की कोशिश की, तो उसका वरदान निष्फल हो गया और वह स्वयं जलकर भस्म हो गई।
होलिका दहन हमें यह सिखाता है कि असत्य, अधर्म और अहंकार का अंत निश्चित है, जबकि सच्चाई, भक्ति और अच्छाई की हमेशा जीत होती है।
होलिका दहन फाल्गुन मास की पूर्णिमा की रात को मनाया जाता है, जो होली के एक दिन पहले आता है।
होलिका दहन के लिए लकड़ियाँ, उपले (गोबर के कंडे) और सूखी घास से एक चिता बनाई जाती है। फिर उसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है और भगवान की पूजा की जाती है।
होलिका दहन में लकड़ियाँ, उपले, नारियल, गेंहू की बालियाँ और नई फसल की पूजा की जाती है। कुछ जगहों पर गुड़, चना और मिठाई भी अर्पित की जाती है।
होलिका दहन के समय “ॐ होलिकायै नमः” मंत्र का जाप किया जाता है और भगवान विष्णु, प्रह्लाद तथा अग्नि देवता की प्रार्थना की जाती है।
होलिका दहन के बाद लोग एक-दूसरे को तिलक लगाते हैं, आग की परिक्रमा करते हैं, और अगले दिन रंगों की होली मनाते हैं।
होलिका दहन हमें अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ और पापों को जलाकर समाप्त करने का संदेश देता है।
होलिका दहन के बाद भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकशिपु का वध किया था। इसलिए यह पर्व अधर्म के अंत और धर्म की स्थापना का प्रतीक है।
होलिका दहन के साथ गेंहू और चने की फसल सेंकने, होली गीत गाने और बुराइयों को जलाने जैसी परंपराएँ जुड़ी हुई हैं।
होलिका दहन मुख्यतः हिंदू धर्म से जुड़ा पर्व है, लेकिन इसके संदेश – बुराई का नाश और अच्छाई की जीत – को हर कोई अपना सकता है।
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