क्या ज्योतिष द्वारा रोग निदान संभव है ?
मत्स्य पुराण के अनुशार देवताओं और राक्षसों ने जब समुद्र मंथन किया था धन तेरस के दिन धनवंतरी नामक देवता अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए थे। धनवंतरी धन, स्वास्थय व आयु के अधिपति देवता हैं। धनवंतरी को देवों के वैध व चिकित्सक के रुप में जाना जाता हैं।
धनवंतरी ही सृष्टी के सर्व प्रथम चिकित्सक माने जाते हैं। श्री धनवंतरी ने ही आयुर्वेद को प्रतिष्ठित किया था। उनके बाद में ऋषि चरक जैसे अनेक आयुर्वेदाचार्य हो, गये। जिन्हों ने मनुष्य मात्र के स्वास्थ्य की देखरेख के लिए कार्य किये। इसी कारण प्राचीन काल में अधितर व्यक्ति का स्वस्थ उत्तम रहता था।
क्योकि प्राचिन कालमें प्रायः सभी चिकित्सक आयुर्वेद के साथ-साथ ज्योतिष का भी विशेष ज्ञान रखते थे। इसी लिए चिकित्सक बीमारी का परीक्षण ग्रहों की शुभ-अशुभ स्थिति के अनुसार सरलता से कर लेते थे। आज के आधुनिक युग के चिकित्सक को भी ज्योतिष विद्या का ज्ञान रखना चाहिए जिससे वे सरलता से प्रायः सभी रोगो का निदान करके रोगी की उपयुक्त चिकित्सा करने में पूर्णतः सक्षम हों सके।
ज्योतिष के अनुशार हर ग्रह और राशि मानव शरीर पर अपना विशेष प्रभाव रखते हैं, इस लिए उसे जानना भी अति आवश्यक हैं। सामान्यतः जन्म कुंडली में जो राशि अथवा जो ग्रह छठे, आठवें, या बारहवें स्थान से पीड़ित हो अथवा छठे, आठवें, या बारहवें स्थानों के स्वामी हो कर पीड़ित होरहे हो, तो उनसे संबंधित बीमारी की संभावना अधिक रहती हैं। जन्म कुंडली के अनुसार प्रत्येक स्थान और राशि से मानव शरीर के कौन-कौन से अंग प्रभावित होते हैं, उनसे संबंधित जानकारी दी जा रही हैं।
ज्योतिष शास्त्र एवं आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य द्वारा पूर्वकाल में किये गयें कर्मों का फल ही व्यक्ति के शरीर में विभिन्न रोगों के रूप में प्रगट होतें हैं।
हरित सहिंता के अनुसार:
जन्मान्तर कृतम् पापम् व्याधिरुपेण बाधते।
तच्छान्तिरौषधैर्दानर्जपहोमसुरार्चनै:॥
अर्थातः पूर्व जन्म में किया गये पाप कर्म ही व्याधि के रूप में हमारे शरीर में उत्पनन हो कर कष्टकारी हो जाता हैं। तथा औषध, दान, जप, होम व देवपूजा से रोग की शांति होती हैं।
आयुर्वेद के जानकारो की माने तो कर्मदोष को ही रोग की उत्पत्ति का कारण माना गया हैं।
1-एक हैं सन्चित कर्म
2-दूसरा हैं प्रारब्ध कर्म
3-तीसरा हैं क्रियमाण
आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य के संचित कर्म ही कर्म जनित रोगों के प्रमुख कारण होते हैं जिसे व्यक्ति प्रारब्ध के रूप में भोगता हैं। वर्तमान समय में मनुष्य के द्वारा किये जाने वाला कर्म ही क्रियमाण होता हैं।
वर्तमान काल में अनुचित आहार-विहार के कारण भी शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
आयुर्वेद आचार्य सुश्रुत, चरक व ब्रिष्ठाचार्य के मतानुसार कुष्ठरोग, उदररोग, गुदारोग, उन्माद, अपस्मार, पंगुता, भगन्दर, मधुमेह(प्रमेह), द्रष्टीहीनता, ह४ अश, पक्षाघात, देह कापना, अश्मरी, संग्रहणी, रकक्तार्बुद, कान, वाणी दोष इत्यादि रोग, परस्त्रीगमन, ब्रहम हत्या, पर धन हरण, बालक-स्त्री-निर्दोष व्यक्ति की हत्या आदि दुष्कर्मों के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं। इस लिये मनुष्य द्वारा इस जन्म या पूर्व जन्म में किया गया पापकर्म ही रोगों का कारण होता हैं। इस लिये जो व्यक्ति खान-पान में सयंमी और आचार-विचार में पुरी तरह शुद्ध हैं उन्हें भी कभी-कभी गंभीर रोगों का शिकार हो कर कष्ट भोगने पड़ते हैं।
भारतीय ज्योतिषाचार्य हजारो वर्ष पूर्व ही जन्म कुंडली के माध्यम से यह ज्ञात करने में पूर्णताः सक्षम थे कि किसी व्यक्ति को कब तथा क्या बीमारी हो सकती हैं।
ज्योतिषशास्त्रो से प्राप्त ज्ञान एवं अभीतक हुएं नये-नये ज्योतिषी शोध के अनुशार जन्म यह जानना और भी सरल है कि किसी मनुष्य को कब तथा क्या बीमारी हो सकती है।
जन्म कुंडली से रोग व रोगके समय का ज्ञात करने हेतु जन्म कुंडली में ग्रह की स्थिति, ग्रह गोचर तथा दशा-अन्तर्दशा का शूक्ष्म अध्ययन अति आवश्यक होता हैं। जन्म पत्रिका के शूक्ष्म अध्ययन के माध्यम से व्यक्ति के द्वारा पूर्वजन्म में किये गये सभी शुभ-अशुभ कर्मों फल को बताने में सक्षम होती हैं जिसका फल व्यक्ति इस जन्म में भोगता हैं।
यदुपचित मनन््य जन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मण: प्राप्तिम |
व्यंज्ज्यती शास्त्र मेंत तमसि द्रव्याणि दीप इव॥
(फलित मार्तण्ड )
ज्योतिष ग्रन्थ प्रश्न मार्ग में रोगों का दो प्रकार से वर्गीकरण किया हैं।
1- सहज रोग 2 आगंतुक रोग ।
1-सहज रोग: प्रश्न मार्ग में जन्म जात रोगों को सहज रोगों के वर्ग में रखा गया हैं। व्यक्ति की अंग हीनता, जन्म से द्र॒ष्टी हिनता, गूंगापन, बहरापन, पागलपन, वक्र ता एवं नपुंसकता आदि रोग सहज रोग होते हैं। जो व्यक्ति में जन्म से ही होते हैं। सहज रोगों का विचार करने हेतु कुंडली में अस्टमेश (अष्टम भाव का स्वामी) तथा आठवें भाव: में स्थित, निर्बत्र ग्रहों से किया जाता हैं। एसे रोग प्राय: दीर्घ कालिक और असाध्य हो जाते हैं।
2 आगंतुक रोग: चोट लगना, अभिचार, महामारी, दुर्घटना, शत्रु द्वारा आघात आदि प्रत्यक्ष कारणों से होने वाले कष्ट तथा ज्वर, रक्त विकार, धातु रोग, उदर विकार, वात-पित-कफ से संबंधित समस्या से होने वाले रोग जो अप्रत्यक्ष कारणों से होते हैं उसे प्रश्न मार्ग में आगंतुक रोग कहे गये हैं। आगंतुक रोग का विचार षष्टेश (छठे भाव काका स्वामी ग्रह), षष्टम भाव में स्थित निर्बल ग्रहों एवं जन्म कुंडली में पाप ग्रहो द्वारा पीड़ित राशि-भाव-ग्रह से किया जाता हैं। जन्म कुंडली से रोग का निर्णय करने हेतु कुंडली में भाव और राशि से संबंधित शरीर के विभिन्न अंग पर ग्रहों का प्रभाव एवं रोग को जानना आवश्यक हैं।
जन्म कुंडली में जो भाव अथवा राशि पाप ग्रह से पीड़ित हो रही हो और जिस राशि का स्वामी त्रिक भाव (अर्थात षष्टम, अष्टम और द्वादश भाव) में स्थित हो उस राशि या भाव संबंधित अंग रोग से पीड़ित हो जाते हैं |
ज्योतिष के अनुशार बारह भाव एवं राशि से संबंधित शरीर के अंग और रोग इस प्रकार हैं।
यदि नवग्रह में से कोई ग्रह शत्रु राशि-नीच राशिः नवांश में, षडबलहींन, पापयुक्त, पाप ग्रह से दृष्ट, त्रिकभाव में स्थित हों, तो संबंधित ग्रह अपने कारकत्व से सम्बंधित रोग उत्पन्न करते हैं। नव ग्रहों से सम्बंधित अंग, धातु और रोग इस प्रकार हैं।
पीड़ा कारक ग्रह अपनी ऋतू में, अपने वार में, मासेश होने पर अपने मास में, वर्षेश होने पर अपने वर्ष में, अपनी महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यंतर दशा एवं सूक्षम दशा में रोग कारक होते हैं। गोचर में पीड़ित भाव या राशि में जाने पर भी निर्बल और पाप ग्रह रोग उत्पन्न करते हैं।
वर्ष में अपना शुभ-अशुभ फल प्रदान करते हैं .
ग्रहों की विंशोत्तरी दशा तथा गोचर स्थिति से वर्तमान या भविष्य में होने वाले रोग को समय से पूर्व अनुमान लगा कर पीडाकारक ग्रहों से संबंधित दान, जप, हवन, यंत्र, कवच, व रत्न इत्यादि धारण करने से ग्रहों के अशुभ प्रभाव को कम कर रोग होने की संभावनाए दूर सकते हैं अथवा रोग की तीव्रता में कम की जा सकती हैं। विद्वानो के मतानुसार ग्रहो के उपचार से चिकित्सक की औषधि के शुभ प्रभाव में भी वृद्धि हो जाती हैं।
प्रश्न मार्ग के अनुसार औषधियों का दान देने से तथा रोगी की निस्वार्थ सेवा करने से व्यक्ति को ग्रह से संबंधित रोग पीड़ा नहीं देते। दीर्घ कालिक एवं असाध्य रोगों की शांति के लिए रुद्र सूक्त का पाठ, श्री महा मृत्युंजय का मंत्र जप तुला दान, छाया दान, रुद्राभिषेक, पुरूष सूकत का जप तथा विष्णु सहस्र नाम का जप लाभकारी सिद्ध होता हैं ।
कर्म विपाक सहिंता के अनुसार प्रायश्चित करने पर भी असाध्य रोगों की शांति होती है ।
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